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कल्पना के चित्र मेरे / राकेश खंडेलवाल

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बढ़ रहे हैं हर डगर में आजकल कोहरे घनेरे
और धुंधले हो रहे हैं कल्पना के चित्र मेरे

रह गये हैं आज स्मॄति की पुस्तकों के पॄष्ठ कोरे
खोल कर पट चल दिये हैं शब्द आवारा निगोड़े
अनुक्रमणिका से तुड़ा सम्बन्ध का हर एक धागा
घूमते अध्याय सारे बन हवाओं के झकोरे

ओढ़ संध्या की चदरिया, उग रहे हैं अब सवेरे
और धुंधले हो रहे हैं कल्पना के चित्र मेरे

हैं पुरातत्वी शिलाओं के सरीखे स्वप्न सारे
अस्मिता की खोज में अब ढूँढ़ते रहते सहारे
जुड़ न पाती है नयन से यामिनी की डोर टूटी
छटपटाते झील में पर पा नहीं पाते किनारे

हैं सभी बदरंग जितने रंग उषा ने बिखेरे
और धुंधले हो रहे हैं कल्पना के चित्र मेरे

भित्तिचित्रों में पिरोतीं आस कल जो कल्पनायें
आज आईं सामने लेकर हजारों वर्ज़नायें
व्यक्तता जब प्रश्न करती हाथ में लेकर कटोरा
एक दूजे को निहारें, लक्षणायें व्यंजनायें

शेष केवल मौन है जो दे रहा है द्वार फेरे
और धुँधले हो रहे हैं कल्पना के चित्र मेरे