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कवि कर्म / अज्ञेय

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     ब्राह्म वेला में उठ कर
     साध कर साँस
     बाँध कर आसन
     बैठ गया कृतिकार रोध कर चित्त :

     ‘रचूँगा।’
     एक ने पूछा : कवि ओ, क्या रचते हो?
     कवि ने सहज बताया।
     दूसरा आया।-अरे, क्या कहते हो?

     तुम अमुक रचोगे? लेकिन क्यों?
     शान्त स्वर से कवि ने समझाया।
     तभी तीसरा आया। किन्तु, कवे!
     आमूल भूल है यह उपक्रम!

     परम्परा से यह होता आया है यों।
     छोड़ो यह भ्रम!
     कवि ने धीर भाव से उसे भी मनाया।
     यों सब जान गये

     कृतिकार आज दिन क्या रचने वाला है
     पर वह? बैठा है सने हाथ, अनमना,
     सामने तकता मिट्टी के लोंदे को :
     कहीं, कभी, पहचान सके वह अपना

     भोर का सुन्दर सपना।
     झुक गयी साँझ
     पर मैं ने क्यों बनाया?
     क्या रचा?
     -हाय! यह क्या रचाया।

14 नवम्बर, 1957