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कवि की मृत्यु / मिख़अईल लेरमन्तफ़ / मदनलाल मधु

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नहीं रहा अब कवि ! प्रश्न था इज़्ज़त का —
मरा, कि वह तो अफ़वाहों से घिरा हुआ,
ले छाती में गोली, बदले की इच्छा,
वह अपना गर्वीला, उन्नत शीश झुका ! ...
नहीं आत्मा शायर, कवि की सह पाई
घटिया, छोटी बातों का अपमान बड़ा,
अभिजातों से टकराने को एकाकी
जैसे पहले, खड़ा हुआ ... वह लड़ा, मरा !
मारा गया ! ... मगर अब यह रोना-धोना,
व्यर्थ प्रशंसा समवेतों से क्या मिलना ?
चाह रहे यों दोष-मुक्त तुम तो होना ?
हुआ वही जो कर बैठी निर्णय विधना !
क्या न तुम्हीं ने पहले बेहद जल-भुनकर
उसकी मुक्त और साहसी प्रतिभा पर
वार किए थे, और आग वह भड़काई
मन-विनोद को, राख ज़रा जिस पर आई ?
और चाहिए क्या अब तुम को ? तुम नाचो,
नहीं यातनाएँ वह अन्तिम सह पाया,
उस अद्भुत्त प्रतिभा का उजला सूर्य छिपा,
पुष्प-हार अब तो उत्सव का मुरझाया ।
ऐसी निर्दयता से उस हत्यारे ने
गोली दागी ... वार न जो ख़ाली जाए,
हृदय भावनाहीन धड़कता समगति से
हाथ तमंचा लिए न कम्पित हो पाए ।
इसमें क्या आश्चर्य ? पराये देशों से
ऊँचे-ऊँचे पद, औ’ दौलत की ख़ातिर,
अन्य सैकड़ों जैसे आए भागे यहाँ,
उसको भी क़िस्मत ने फेंक दिया लाकर,
रूसी धरती, भाषा, रीति-रिवाजों का
जिसने था उपहास उड़ाया, कर अपमान
तरस न आया उसे हमारे गौरव पर
समझ न पाया ख़ूनी क्षण में, रहा अजान
किसपर उसका हाथ उठा, ली किसकी जान ! ...

वह तो मारा गया — क़ब्र में अब सोया
उस गायक-सा, जो अति प्यारा, पर अज्ञात
हसद, ईर्ष्या अन्धी का जो हुआ शिकार,
बड़े ओज से जिसको उसने ख़ुद गाया
जैसे इस पर, वैसे ही तो उस पर भी
निर्दयता से किया गया था घातक वार ।

सरल दिलों का प्यार त्याग, अति सुख-दाता
मुक्त, भावनापूर्ण हृदय को जो बींधे
घुटन, हसद के जग से क्यों जोड़ा नाता ?
तुच्छ चुग़लख़ोरों से हाथ मिलाया क्यों ?
झूठे शब्दों, स्नेहों में भरमाया क्यों ?
वह, जिसने बचपन से लोगों को जाना,
उनके दिल को पहचाना ? ...

पहला मुकुट उतारा, कण्टक-मुकुट नया
रक्खा उसने सिरपर, उसको ख़ूब सजा,
छिपे हुए काँटों ने लेकिन तन हीरा
छिपे-छिपे उसका चीरा;

मूढ़ों की अफ़वाहों, निन्दा, चुग़ली ने
उसके अन्तिम क्षण विष भरे बना डाले
चला गया वह आशाओं का ख़ून लिए
विफल तमन्ना बदले की दिल में पाले,
मूक हो गए स्वर अब अद्भुत्त गीतों के
फिर से उनकी गूँज न कभी सुनाई दे,
म्लान, तंग डेरा है कवि का, वहाँ तिमिर
लगी हुई होठों पर चुप की अमिट मुहर ।

और सुनो तुम, अभिमानी वंशज उनके,
जिनके पुरखे ख्याति नीचता से पाए,
ख़ुद हो दास, मगर यह केवल क़िस्मत है
गिरे हुओं को रौन्द, ज़ुल्म तुमने ढाए !
सिंहासन को लालच से जो घेरे हो
तुम, आज़ादी, यश, प्रतिभा के हत्यारे !
आड़ बना कानून तुम्हारे तो सम्मुख
न्याय, सत्य, सब बैठे हैं चुप्पी मारे ...

लेकिन प्रभु का न्याय, सुनो भ्रष्टाचारी !
अति कठोर प्रभु न्याय राह जो देख रहा,
सोने की छनकार न जिसको जीत सके,
भाव तुम्हारे और न जिससे काम छिपा ।
साथ न तब तो झूठ, न अफ़वाहें देंगी
नहीं बच सकोगे उन चीज़ों से तुम तो
जिन चीज़ों ने अब तक तुम्हें बचाया है ।
धो न सकोगे अपना काला ख़ून बहा
कवि का जो यह तुमने ख़ून बहाया है !

 1837
   
मूल रूसी से अनुवाद : मदनलाल मधु

और अब यह कविता मूल रूसी भाषा में पढ़ें
            Михаил Лермонтов
                Смерть поэта

Отмщенье, государь, отмщенье!
Паду к ногам твоим:
Будь справедлив и накажи убийцу,
Чтоб казнь его в позднейшие века
Твой правый суд потомству возвестила,
Чтоб видели злодеи в ней пример.

Погиб поэт! — невольник чести —
Пал, оклеветанный молвой,
С свинцом в груди и жаждой мести,
Поникнув гордой головой!..
Не вынесла душа поэта
Позора мелочных обид,
Восстал он против мнений света
Один, как прежде… и убит!
Убит!.. К чему теперь рыданья,
Пустых похвал ненужный хор
И жалкий лепет оправданья?
Судьбы свершился приговор!
Не вы ль сперва так злобно гнали
Его свободный, смелый дар
И для потехи раздували
Чуть затаившийся пожар?
Что ж? веселитесь… Он мучений
Последних вынести не мог:
Угас, как светоч, дивный гений,
Увял торжественный венок.

Его убийца хладнокровно
Навел удар… спасенья нет:
Пустое сердце бьется ровно,
В руке не дрогнул пистолет.
И что за диво?.. издалека,
Подобный сотням беглецов,
На ловлю счастья и чинов
Заброшен к нам по воле рока;
Смеясь, он дерзко презирал
Земли чужой язык и нравы;
Не мог щадить он нашей славы;
Не мог понять в сей миг кровавый,
На что он руку поднимал!..

И он убит — и взят могилой,
Как тот певец, неведомый, но милый,
Добыча ревности глухой,
Воспетый им с такою чудной силой,
Сраженный, как и он, безжалостной рукой.

Зачем от мирных нег и дружбы простодушной
Вступил он в этот свет завистливый и душный
Для сердца вольного и пламенных страстей?
Зачем он руку дал клеветникам ничтожным,
Зачем поверил он словам и ласкам ложным,
Он, с юных лет постигнувший людей?..

И прежний сняв венок — они венец терновый,
Увитый лаврами, надели на него:
Но иглы тайные сурово
Язвили славное чело;
Отравлены его последние мгновенья
Коварным шепотом насмешливых невежд,
И умер он — с напрасной жаждой мщенья,
С досадой тайною обманутых надежд.
Замолкли звуки чудных песен,
Не раздаваться им опять:
Приют певца угрюм и тесен,
И на устах его печать.

А вы, надменные потомки
Известной подлостью прославленных отцов,
Пятою рабскою поправшие обломки
Игрою счастия обиженных родов!
Вы, жадною толпой стоящие у трона,
Свободы, Гения и Славы палачи!
Таитесь вы под сению закона,
Пред вами суд и правда — всё молчи!..
Но есть и божий суд, наперсники разврата!
Есть грозный суд: он ждет;
Он не доступен звону злата,
И мысли, и дела он знает наперед.
Тогда напрасно вы прибегнете к злословью:
Оно вам не поможет вновь,
И вы не смоете всей вашей черной кровью
Поэта праведную кровь!

1837 г.