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कविता, कवि और कलम / शिवदेव शर्मा 'पथिक'

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कविता कहना भूल उसे है जिसमें युग हुँकार नहीं हो,
वह कवि क्या! जिसकी कविता से सुलग उठा अंगार नहीं हो?
कलम नहीं वह जो मचले तो आता युग में ज्वार नहीं हो!

कविता है वह नाम जिससे सूरज फीका-फीका
भरे न कवि यदि प्राण तो मानव पुतला है मिट्टी का
कलम उठा देती है घूँघट, युग-युग सदी सदी का!

कविता है कल्पना नवल युग के नव निर्माणों की,
कवि दिशा बदलता चला गया है आँधी तूफानों की
कलम! गरम कर दे जो शोणित मुर्दे इंसानों की

कविता है म्रियमाण, म्लान यदि यौवन की झनकार नहीं हो
कवि असत्य है जिसको युग-युग जीने का अधिकार नहीं हो
कलम नहीं वह जिसकी गति को प्रगति पंथ से प्यार नहीं हो!

कविता मीरा! पचा रही है विष का जलता प्याला,
कवि है नटवर कृष्ण और शिव ताँडव करनेवाला
कलम वही जो तिमिर पृष्ठ पर धधकाती हो ज्वाला!

कविता युग के सूरदास के आँखों की लाली है,
जलते रेगिस्तानों में कवि फूलों की डाली है
कलम शूल का पंथ पकड़कर सीता मतवाली है!

कविते! आज अनय की लंका धधक उठे शृंगार सही हो,
कवि! कहदे मानव, मानव से शोषण का व्यापार नहीं हो,
झूठी है वह क़लम कि जिसमें युग की आह, पुकार नहीं हो!

मरु की दहक रही छाती पर कविता शीतल पानी,
कवि हिम की गरिमा है जिसमें शोला, लपट, जवानी
कलम गढ़ा करती सदियों से 'अरुण विहान' कहानी!

कविता मधु चेतना! मरी तो पतझड़ आ जाएगा,
'रवि से ऊँचा कवि' प्यासा हो अंधकार छाएगा
कलम रुकी तो कभी जमाना राह नहीं पाएगा!

कविता जीती रहे, भले मिलता उसको आधार नहीं हो
युग लहरों पर कवि तिरता है, भले उसे पतवार नहीं हो
कलम साँस है प्रगति प्राण की देख रहा संसार नहीं हो!

करो नहीं अपमान की कविता युग वाणी होती है,
कवि की पूजा नए सर्जन की अगवानी होती है
कलम क्षितिज के ओर छोर तक कल्याणी होती है!

कविता है वह नशा कि जिसको पीकर जग गाता है,
कवि आँखों के सावन से हीं पत्थर पिघलाता है
जहाँ क़लम उठती है निर्झर वहीं फूट जाता है!

कविता जीवन रक्त धमनियों में जिसका आकार नहीं हो,
कवि वह जिसको 'लीक पुरातन' से चलना स्वीकार नहीं हो
कलम नहीं वह जो गढ़ देती कंठों के स्वर हार नहीं हो!