कविता (3) / मोहम्मद सद्दीक
भूल मत
कालतांईं थारो म्हारो 
मोलतोल एक सो 
कालतांई थारा म्हारा 
हाल-चाल एकसा
कातलांई म्हारी थारी 
चाल ढाल एकसी 
आज अचाचूक एक छोटी सी 
टेकरी माथै आवतांई
ऊबोहो‘र मूतणै ऊं
बडो आदमी बणै तो बण।
थारै सिर में सेर रेत 
आंख्यां में गीड 
फाट्योड़ा खूंसड़ा
लत्ता लीरम लीर 
पसीनै सूं बासता 
रात ढळी दिन ऊग्यो
तूं सत्ता रै सारै सूं आगै पूग्यो 
थारा गालिया चढ़ग्या
सूखै हाडकां पर मांस छाग्यो 
अबै तो किरड़ काबरै बाळां में 
चमेली रो तेल 
सरीर री सळां जाणै गंवतरै गई
कुड़ीज्योड़ी कम्मर पादरी होगी
बोली में कड़क
बातां में बीजळी री झळ
काया में अणूतो करार 
बापरग्यो भाई 
धोती चोळा। खोळा खोळा 
अंगरखी-पगरखी
गिटर-पिटर 
आपो भूल‘र अपरोगो लागण लाग्यो
पेली हाळो थारो डोळियो 
आज भी म्हारी निजरां में 
जीवता-बोलता बतळावता
चितराम बणावै 
नेड़ो आव
देखणो चावै तो दिखाऊं
थारो सागी डोळियो 
थारो ही सागी खोळियो 
कितरो डरावणो हो-याद कर
 
	
	

