कविता - 11 / योगेश शर्मा
शहर की ऊँची ईमारतें
गाँव के छोटे घरों पर जंगल जंगल
चिल्लाती हैं,
और बड़े घरों को विस्थापन मार्ग पर लगा
इंडिकेटर समझती हैं।
ये वही इमारतें हैं,
जिनकी घटती बढ़ती छांव तले
फूल, फूल बेचते हैं।
उनके पास तर्क हैं
गाँव को जंगल कहने के,
इसके लिए उन्होंने दिल्ली में बैठक की है,
वे कहते हैं,
यहाँ सुविधाएँ नही हैं,
बीमारी में शहर की तरफ दौड़ो
महामारी में शहर की तरफ दौड़ो
शादी ब्याह में,
तीज त्यौहारों,
मरण गलन आदि आदि सब में,
और यह तय हुआ है कि इन तर्कों की प्रमाणिकता
दिल्ली तय करेगी।
शहरों में कुत्ते, दया हेतु
सीख गए हैं ढोंग करना।
बिल्लियाँ कुत्तों के साथ रहती हैं,
चूहे विशालकाय होते जा रहे हैं।
चैत की बारिश में उन्मादित हुए शहरी कवि
भाषा के हर सम्भव शिल्प को तलाशकर
प्रेम प्रेम चिल्लाते हैं...
संस्कृति कहती थी,
आग सबसे शुद्ध होती है
फिर ऐसा हुआ,
किसी ने उस संस्कृति में ही आग लगा दी।
आजकल 'जंगलों' में कुछ ही लोग बचें हैं
कुछ की
केवल मानसिकता विस्थापित हो पायी है
और कुछ सशरीर विस्थापित हो गये।