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कविता - 16 / योगेश शर्मा

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यह मेरा सहज समर्पण है
इस सहजता में एक प्रवाह है
जो चला आ रहा है
सदियों सदियों से।
न जाने कितनी घाटियों की सभ्यताएँ,
असंख्य संस्कृतियाँ,
अनगिनत रीति रिवाज और
अगणनीय परम्पराएँ,
घुली हुई हैं इस धारा प्रवाह में।
यह समर्पण कालजयी है,
इसे न जाने कितने ही सिद्धान्तों ने सींचा है,
बहुत से ग्रन्थों ने इनको
सहेजा है अनन्त काल से अब तक।
यही है जो मुझे तुमसे भिन्न बनाता है,
यह एक सामूहिक प्रयास रहा है,
हमेशा से...
इसका हिस्सा अब मैं भी हूँ।
आने वाली पीढ़ियों में से कोई न कोई
मेरे योगदान को आधार बनाकर
जरूर अपने समर्पण का जिक्र करेगा।