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कविता - 18 / योगेश शर्मा
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पत्थर पर लोहे की चोट...
आवाज का;
शांति भेदना,
मष्तिष्क में चोट करती चेतना,
अथक परिश्रम,
मात्र कर्म;
परम् धर्म।
विचार रहित,
किन्तु बल सहित,
दो बार की चाय,
जो भूख को आजमाये,
अन्य कुछ उद्यमियों का सहयोगी दल;
कार्य करे जैसे मानसिक बल।
सांझ की रोटी,
व किस्मत खोटी
घर की अनबन,
ये सब,
निर्धन का धन।