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कविता - 19 / योगेश शर्मा

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तुम्हारी ये कज्जलित आंखें,
प्राचीन हो चुकी
प्रज्ववलित आंखें,
कहीं ये काजल
उस आग की राख का
रूप तो नही,
कहीं ये श्रृंगार ये चूड़ियां,
बेड़ियाँ स्वरूप तो नही।
ये रंजन सब,
एक प्रकार की भ्रांति प्रतीत होती है,
इनके आवरण में मुझे
कोई क्रांति प्रतीत होती है।
ऐसे करुण स्वर न हों अब,
ना नारी रुदित हो,
नव प्रभात हो अब,
स्त्री शक्ति उदित हो,
अब आत्मसम्मान हर नारी का
परमार्थ हो,
भाव मेरे जन मन तक पहुंचे,
काव्य मेरा कृतार्थ हो।