कविता - 4 / योगेश शर्मा
अनगिनत अर्थों को
शब्दों के आगे गिड़गिड़ाते देखकर
अर्थों से भाषा होने का हुनर सीखना स्वाभाविक है
शब्द कई बार सिर्फ आडम्बर रचते हैं,
कितनी बातें हैं
जो संवाद समाप्ति के घेरे में हैं
यह संवाद कोई अलौकिक वस्तु नही है
यह तो हमारी कविताओं में उपजे
एकालाप का ठीक विपरीत है।
ना जाने कितने विशेषण ऐसे पनप रहे हैं
जो संज्ञाओं के आस्तित्व पर घात लगाए बैठे हैं।
अपनी अनुभूतियों को खूंटे से खोलना होगा,
शेष अर्थांश की लाठी लेकर
शाब्दिक आडम्बर से भिड़ जाना होगा,
यह उचित समय है।
मैं कहूँगा,
विचलित होना अत्यंत महत्वपूर्ण है।
इन परिस्थितियों में,
जब तमाम असवेंदनशील शब्द...
भावतरंगों का ढोंग रचते,
अभुभवों के पर्याय होने का नाटक करते..
एक स्पंदनहीन कविता का उधड़ा हुआ जामा पहने हुए,
मरणोन्मुख एक कतार में हैं,
तो क्या यह जरूरी नही,
कि विचलित होने का दायरा
और व्यापक हो?