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कविता / अज्ञेय
Kavita Kosh से
मानस-मरु में व्यथा-स्रोत स्मृतियाँ ला भर-भर देता था,
वर्तमान के सूनेपन को भूत द्रवित कर देता था,
वातावलियों से ताडि़त हो लहरें भटकी फिरती थीं-
कवि के विस्तृत हृदय-क्षेत्र में नित्य हिलोरें करती थीं।
चिर-संचय से धीरे-धीरे कवि-मानस भी भर आया
किन्तु न फूट निकलने के पथ भाव-तरंगिनि ने पाया।
फिर भी कूलों से पागल-सा छलक गया वह पारावार-
'कविता! कविता!' कहता उस में बहा जा रहा सब संसार!
अमृतसर जेल, दिसम्बर, 1931