भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

कविता / शील

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

हम कविता का व्यवसाय नहीं करते
कविता ...
वस्तु या पदार्थ नहीं,
जिन्स नहीं,
जादू नहीं ।

उत्पीड़न की देह पर सवार
विलासी सभ्यता के सिर पर
चढ़कर बोलती है कविता,
अक्षत चेतना के द्वार खोलती,
इतिहास को दृष्टि देती है –
कविता ।

हम कविता का व्यवसाय नहीं करते,
कविता न बिकती है,
न ख़र्च होती है,
निरन्तर सम्वेदना को स्वर देती है ।

पूँजीतन्त्र में –
कविता और न्याय एक वस्तु हैं ।
कवि और न्यायिक बिकते हैं –
वस्तु की तरह ।

पाश और सफ़दर हाशिमी की हत्या,
इसलिए कि उनकी कविता –
निरन्तर सम्वेदना को स्वर देती है ।
शोषकों के विरुद्ध –
ऐलान करती है ।

कविता देखती है –
पंजाब के दहशतज़दा किसान
मौत से टकराते –
खेत-खलिहान करते हैं ।

कविता सुनती है –
गोली खाए आदमी का हाहाकार,
औरतों का विलाप,
बच्चों का चीत्कार ।

कविता विद्रोह करती है,
अब एक क्रौंच पक्षी नहीं,
लाख - लाख औरत - मर्द, बच्चों का वध –
आर्तनाद ।

कविता व्यवसाय होती, तो
न वाल्मीकि होते, न तुलसी,
न प्रेमचन्द, न गोरिकी, न लु शुन
और न ...
कविता हथियारों की तरह,
व्यवसाय की वस्तु बन जाती ।

हम कविता को नहीं जीते –
कविता हमें जीती है ।
हमारा कालबोध –
कविता में ढल जाता है ।

04 फ़रवरी 1989