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कविता और शहतूत / प्रेमरंजन अनिमेष

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मोतीहारी से मुजफ़्फ़रपुर के सफ़र में
एक बच्चे के हाथ देख
फिर उसकी याद आई
और याद आया
अब तक नहीं लिखी
शहतूत पर कविता

जिसे कबसे लिखना चाहता था
तब से जब
कविता का 'क' भी नहीं था पता

अब जबकि
उसका स्वाद भी
अजाना-सा होने लगा है जुबान पर
लिख देना चाहता उसे
शहतूत का यह कर्ज़ है मुझ पर
जिसे बचपन की अलमस्ती में
बेमोल बेफ़िक्र खाया अघाया

याद की वह उँगली
चूसते फिर थामे
कितनी दूर निकल आया हूँ
कि भूलने लगा हूँ

उसे शहतूत के नाम से जानता मैं
आप किसी और नाम से जानते होंगे
पर विश्वास है कभी न कभी स्वाद उसका
ज़रूर आपके भीतर भी उतरा होगा
उसी को संजोना चाहता हूँ
जितना हो सके अपनी कविता में

बचपन में बहुत चाहता था
बहुत सी चीज़ों को
और किसी कवि को पहचानता भी न था
मगर क्या मालूम ऐसा क्यों लगता
कि तभी से था एक ऐसा इनसान बनना चाहता
जिसकी एक जेब में शहतूत हो
दूसरी में कविता

कविता और शहतूत में
किसकी उम्र लम्बी है
नहीं जानता

न यह ख़बर
आगे चल कर
कौन काम आएगा किसके

बहरहाल शहतूत में है जिस तरह
कविता जैसा कुछ
इस कविता में रख देना चाहता
शहतूत का छोटा-सा पता

कि कल को अगर
एक कोई खो जाए
तो दूसरे से
ढूँढ़ लिया जाए...