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कविता की फ़सल / कमलेश कमल
Kavita Kosh से
दिल में भले ही
तिशनगी रही हो
प्रेम की हर आवाज़
अनसुनी रही हो
अलमस्त शब्दों के बादल में
छिपते-ढँकते रहे हों
मेरे बेगैरत अहसास
पर अश्कों की बारिश से अबकी
अच्छी हुई है
कविता की फ़सल
एक ज़रब-सी पड़ती है
कहीं सीने के अंदर
और स्याही में बिखरते हैं
तेरी यादों के किर्चे!