कविता जा रही है / पद्माकर शर्मा 'मैथिल'
आज कवि से दूर कविता जा रही है।
श्वेत रेखा में अचल सिंदूर लेकर,
निज कपोलों को क्षितिज का रंग देकर,
अंग में पियप्रीत का उबटन रमाकर,
हाथ में सौभग्य की मेंहदी रचाकर,
नूपुरों की तान से वीणा बजाकर,
भाल पर आकाश के तारे सजाकर,
चंद्रमुख पर जलधि का घूँघट पसारे,
पालकी में बैठ जाती सजन द्वारे,
चौ तरफ चारों कहारों की भुजा में,
उठ रहा डोला दुल्हनियाँ जा रही है।
आज कवि से दूर कविता जा रही है।
प्रीत की डोरी अचानक तोड़कर,
गाँठ परदेसी पिया से जोड़ कर,
एक चिर प्राचीन दीपक को बुझाकर,
एक नूतन दीप की बाती जलाकर,
भूल बस आज तक के प्यार को,
कर विडम्बित आज कवि की हार को,
रेशमी आँचल तले ढक कर सवेरा,
और कवि की ज़िन्दगी में कर अंघेरा,
दूर ज्यों-ज्यों जा रहा है प्रीत।डोला,
राह में त्यों-त्यों सियाही छा रही है।
आज कवि से दूर कविता जा रही है।