कविता बह निकलती है / शिवनारायण जौहरी 'विमल'
कविता बह निकलती है
अत्याचार देखा हो
सुना हो या सहा हो
और उसका उपचार संभव हो न पाए
तो ह्रदय की धडकनों से
बह निकल पड़ती है कविता
आशा कि निराशा कि साह्स की
सग्राम की कविता।
पीर अपनी हो पराई हो
सहन की शक्ति जब थकने लगे
जीभ में कांटे उगे हों गला रुंध जाये
तो उँगलियों से बह
निकलती है आंसू चूमती कविता।
जब कोई अनगढ़ पत्थरों को
तराश कर सौन्दर्य को साक्षात क्रर दे
चिपक कर रह जाय मन की आँख से
छेनी की नोक से लिखी गई
सौन्दर्य की प्यार की मनुहार की
यादों भरी कविता।
जब वात्सल्य के रस में
डूबा हुआ बचपन लौट कर आजाय
आँख नम हो जाय तो
माँ की याद से कविता निकलती है।
जब जनकल्याण को समर्पित संवेदना
के मानसरोवर कोई उफान आजाए
तो निकल पड़ती है भागीरथी कविता
जो शिव के रोकने पर भी नहीं रुकती
अधखुली आँखें
ठंडी सुबह
चाय की चुस्की पेट में पहुँची
उबल कर आगई कविता
कलम की नोक पर
जाने कब का संचित गुवार
बह निकला अचानक।