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कविता में सब महफ़ूज़ है / नवनीत शर्मा
Kavita Kosh से
वहां अब भी हैं पिता जी की झिड़कियां।
जैसे रात हो
अब भी दरवाजे की ओर हैं
मां के कान
टूटी ऐनक के साथ
खत खोल रहे हैं दादा
टिक्के से अटी है बहन की तर्जनी
बेदखल बछड़े का रंभाना
अब भी गूंजता है गोशाला में
अब भी आती है कोई गाय
सिर के बाल चाट कर
नम कर जाती है आंखें
दूर से लाए थे पिता
जगजीत सुनाता
यह टेप रिर्काडर
अब भी बजता है
अप्पू के जन्मदिन पर
अब भी बनते हैं गुलगुले
आंगन में दीवाली की फुलवारी
अमरूद के दरख्त पर टंगी हैं शरारतें
शुक्र है कविता में सब महफूज है।