कविताघर / लीलाधर मंडलोई
क्या कहूं कि आमदरफ्त है परछाइयां
फुसफसाहटों में है अखबार के सफे
स्नायुओं में दौड़ता है तेजाब
सब्जी काटने की छुरी तब्दील है तलवार में
गिरफ्तार हैं कविताओं के विषय
हकाला गया कविता में लिखते हुए प्रेम
शिनाख्त की जद में मुजरिम कानून की ओट में
खुले षड्यंत्र में मुब्तिला अन्वेषण तंत्र
भोजन से उठती गंध बदल गई इतनी
पाता खुद को जीवित मुर्दाघर में
चुकी दांतों की चमक
और दुखते हैं जबड़े
बहुत सारी हंसी आस-पास खो गई
दोस्त जो बहुत ज्यादा थे हिसाब में
एकाएक घट आ टिके अंगुलियों पर
कुछ ऐसे कि नफा-नुकसान पर आ ठहरी आत्मा
जो दोस्त बचे-खुचे
उनकी शक्ल में परिवार सुकून की सांस में
मां के सीने से उतरने से रहा दूध
और वह कटोरा सूखे स्तनों से लगा
सौंपती है शक्ति घर छोड़ने के पहले
पत्नी करती है ताकीद कि याद रखना है किसे
बच्चे मुस्कुराने की कोशिश में
बढ़ाते ढाढस कि एकाएक बुजुर्ग हुए
चकमक भर चिंगारी है
और विश्वास की अंधी खोह
चलता हूं रक्तस्नात चेहरा उठाये
आवाजें हैं पीछे और आगे रास्ता
अंधकार से घिरा कविताघर
ऋतु बसंत का सुप्रभात
छिपा उसमें कहीं स्व
मैं सूंघता हूं
और दौड़ने लगता हूं.