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कवितावां म्हारी / हरीश बी० शर्मा

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म्हारी कवितावां
च्यार-पांच लैणां री उठा-पटक
अर सजावट, आखरां री
ज्यूं बेमन सूं चालणो अर
बेमेळां में हंसणो, फीकी हंसी
घसीजती कलम
खुरदरा कागजां माथै
ज्यूं जीवण री भागम-भाग सूं थक्योड़ो
रैवाज जोवै है
पण मारग
जाणै द्रोपदी रो चीर
श्री गणेश रो ठा
ना राम नांव सत रो।

बस चालै है ज्यूं-ज्यूं जीवणी
लिखीजै है - कवितावां
सूरजज सूं चांदद तांईं री जातरा रो
लेखो-जोखो,
म्हारी कवितावां रा सबद।
ना लाग री लाय सूं
हिवड़ो बळयो अर ना
कोई री उडीक में दिनूगो हुयो,
अणजाण नैं जोवण में
ठौड़ सूं बेठौड़ ही हुयो ....।
ओळखै मारग चालतो
ठा नीं किण दिस निसरग्यो
अर भटकग्यो...।

पण आज तांईं कविता म्हारी
म्हनैं आस बंधावै है
विसवासी बणावै है
भलाई अळखाणो मारग है थारो
पण ठौड़ जाणी समझी है
अर कलम आखरां री
सजावट करती जावै है,
कवितावां बणती जावै है।