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कवित्त-१ / शंकरलाल द्विवेदी
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कवित्त-१
कान्ह कौं, कन्हाई के सखा सनेस दीजो, गोप-
गोपिका कुसल पै कुसल-छेम चाहतीं।
तुम तौ हिये तैं दूरि जानि ही न पाए, हम-
देखतीं, छकाबतीं, सुबैठि बतरावतीं।
आजुहू कदम्ब की सघन छाँह, कुञ्ज-पुंज,
गुंजति तिहारी, बाँसुरी की धुनि आवती।
तुम जौ भए दुःखी तौ, प्राननि तजैंगी स्याम,
करौ परतीति, सो तिहारी सौंह खावतीं।।