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कवित्‍व जगमगाता है ! / प्रेमशंकर शुक्ल

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मैं निषेध हूँ
एक शिला का
(दरअसल जो कि समय है !)

जितना बह जाता हूँ
उतना रह जाता हूँ
पत्‍थर होने से

अवाक्‌ प्रार्थना में
मेरा भी मौन है

बड़ी झील ! तुम्‍हारी पानी-धुली
आवाज में
मेरी भी ज़ुबान का
अंजोर है
(मद्धम ही सही)

मेरे ख़याल में
पानी का
कवित्‍व जगमगाता है !