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कविवर शिशु के निधन पर / लाखन सिंह भदौरिया
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‘राम’ की आन ‘कबीर’ की तान में गाते हुए रसखान गये।
अमृत पुत्र का तेज लिये वह बोध की बाँधे, कृपाण कये।
स्वर-बाँसुरी छूट गयी कर से, फणि नाथने को कवि-गान गये।
शब्द के तेज का शौर्य लिये, ‘शिशु’ छन्द की ताने कमान गये।
‘सूर’ की सीप, कबीर-सी दृष्टि में, रूपभरे, स्वर-ठाट गया।
पग, मीरा की पीर बिबाई लिए, दुखती, दुख-गैल को काट गया।
वह आग को पानी बनाता हुआ, वर वाणी का छन्द है बाँट गया।
‘शिशु’ का मुख बोलना मौन हुआ, रस घोल घनाक्षरी पाठ गया।
उफनाती रही दृग की यमुना, युग-आतप के दुख दाह में भी।
अलकापुरी ने छल पाया नहीं, सुख पाया करील की छाँह में भी।
रस-चम्बल का छवि नीर पिया, लहराये अभाव की बाँह में भी।
‘शिशु’ भावना फूल चढ़ाते चले, मुस्काते अनन्त की राह में भी।