भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

कशमकश..... / हरकीरत हकीर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

इक अजीब सी
कश्मकश है
अपने ही हाथों से
इक बुत बनाती हूँ
लम्हें दर लम्हें
उसे सजाती हूँ ,
संवारती हूँ ,
तराशती हूँ
और फ़िर ....
तोड़ देती हूँ ...


बड़ा ही
अजीब पहलू है
कैनवस पर खिले
रंगीन चित्रों पर
अचानक
स्याह रंगों का
बिखर जाना....


चलते-चलते
ज़िन्दगी का
अकस्मात्
ठहर जाना
और खेल का
इतिश्री
हो जाना ....