भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
कश्मीर से मणिपुर तक / सुशान्त सुप्रिय
Kavita Kosh से
एक दिन मैं
काम पर जाऊँगा
पर शाम को घर वापस
नहीं लौट पाऊँगा
ग़ायब हो जाऊँगा मैं
घर से दफ़्तर के बीच में
दिन-दहाड़े एक दिन
कोई नामो-निशान
नहीं मिलेगा मेरा
ढूँढ़ने पर भी
इस सहमे शहर में
घर पर कई जोड़ी आँखें
मेरी प्रतीक्षा में
पथरा जाएँगी
सैकड़ों गुमशुदा लोगों
की सूची में
एक नाम और
बढ़ जाएगा
संगीनों के साये में जीते हुए
एक दिन ऐसा ही होगा
मेरे अपने पुकारेंगे मेरा नाम
पर कहीं से कोई उत्तर नहीं आएगा
सूरज छपाक से गिरेगा
उस शाम नदी में
आत्म-हत्या के इरादे से
रात के सीने में
एक गहरी हूक उठेगी
दिशाएँ मुँह छिपाए
सुबकती रहेंगी
उस रोज़ देर तक