कश्मीर– जुलाई के कुछ दृश्य / अशोक कुमार पाण्डेय
(एक)
पहाड़ों पर बर्फ के धब्बे बचे हैं
ज़मीन पर लहू के
मैं पहाड़ों के करीब जाकर आने वाले मौसम की आहट सुनता हूँ
ज़मीन के सीने पर कान रखने की हिम्मत नहीं कर पाता
(दो)
जिससे मिलता हूँ हँस के मिलता है
जिससे पूछता हूँ हुलस कर बताता है खैरियत
मैं मुस्कराता हूँ हर बार
हर बार थोड़ा और उन सा हो जाता हूँ
(तीन)
धान की हरियरी फसल जैसे सरयू किनारे अपने ही किसी खेत की मेढ़ पर बैठा हूँ
हद-ए-निगाह तक चिनार ही चिनार जैसे चिनारों के सहारे टिकी हो धरती
इतनी खूबसूरती
कि जैसे किसी बहिष्कृत आदम चित्रकार की तस्वीरों में डाल दिए गए हों प्राण
मैं उनसे मिलना चाहता था आशिक की तरह
वे हर बार मिलते हैं दुकानदार की तरह
और अपनी हैरानियाँ लिए
मैं इनके बीच गुजरता हूँ एक अजनबी की तरह
(चार)
ट्यूलिप के बागीचे में फूल नहीं हैं
ट्यूलिप सी बच्चियों के चेहरों पर कसा है कफ़न सा पर्दा
डरी आँखों और बोलते हाथों से अंदाजा लगाता हूँ चित्रलिखित सुंदरता का
हमारी पहचान है घूंघट की तरह हमारे बीच
वरना इतनी भी क्या मुश्किल थी दोस्ती में?
(पाँच)
रोमन देवताओं सी सधी चाल चलती एक आकृति आती है मेरी जानिब
और मैं सहमकर पीछे हट जाता हूँ
सिकंदर की तरह मदमस्त ये आकृतियाँ
देख सकता था एक मुग्ध ईर्ष्या से अनवरत
अगर न दिखाया होता तुमने टीवी पर इन्हें इतनी बार.
(छः)
यह फलों के पकने का समय है
हरियाए दरख्तों पर लटके हैं हरे सेब, अखरोट
खुबानियों में खटरस भर रहा है धीरे-धीरे
और कितने दिन रहेगा उनका यह ठौर
पक जाएँ तो जाना ही होगा कहीं और
क्या फर्क पड़ता है – दिल्ली हो या लाहौर!
(सात)
देवदार खड़े है पंक्तिबद्ध जैसे सेना हो अश्वस्थामाओं की
और उनके बीच प्रजाति एक निर्वासित मनुष्यों की
‘कहीं आग लग गयी, कहीं गोली चल गयी’
जहाँ आग लगी वह उनका घर नहीं था
जहाँ गोली चली वह उनका गाँव नहीं था
पर वे थे हर उस जगह
उनके बूटों की आहट थी खौफ पैदा करती हुई
उनके चेहरे की मायूसी थी करुणा उपजाती
उनके हाथों में मौत का सामान है
होठों पर श्मशानी चुप्पियाँ
इन सपनीली वादियों में एक ख़लल की तरह है उनका होना
उन गाँवों की ज़िंदगी में एक ख़लल की तरह है उनका न होना
(आठ)
(श्रीनगर-पहलगाम मार्ग पर पुलवामा जिले के अवंतीपुर मंदिर के खंडहरों के पास)
आठवीं सदी साँस लेती है इन खंडहरों में
झेलम आहिस्ता गुज़रती है किनारों से जैसे पूछती हुई कुशल-क्षेम
ज़मींदोज दरख्तों की बौनी आड़ में सुस्ता रही है एक राइफल
और ठीक सामने से गुजर जाती है भक्तों की टोलियाँ धूल उड़ातीं
ये यात्रा के दिन हैं
हर किसी को जल्दी बालटाल पहुँचने की
तीर्थयात्रा है यह या विश्वविजय पर निकले सैनिकों का अभियान?
तुम्हारे दरवाजे पर कोई नहीं रुकेगा अवंतीश्वर
भग्न देवालयों में नहीं जलाता कोई दीप
मैं एक नास्तिक झुकता हूँ तुम्हारे सामने – श्रद्धांजलि में
(नौ)
पहाड़ों पर चिनार हैं या कि चिनारों के पहाड़
और धरती पर हरियाली की ऐसी मखमल कि जैसे किसी कारीगर ने बुनी हो कालीन
घाटियों में फूल जैसे किसी कश्मीरी पेंटिंग की फुलकारियाँ
बर्फ़ की तलाश में कहाँ-कहाँ से आये हैं यहाँ लोग
हम भी अपनी उत्कंठायें लिए पूछते जाते हैं सवाल रास्ते भर
जनवरी में छः-छः फीट तक जम जाती है बर्फ साहब तब सिर्फ विदेशी आते हैं दो चार
फिरन के भीतर भी जैसे जम जाता है लहू
पत्थर ग़र्म करते हैं सारे दिन और गुसल में पानी फिर भी नहीं होता ग़र्म
समोवार पर उबलता रहता है कहवा...अरे हमारे वाले में नहीं होता साहब बादाम-वादाम
इस साल बहुत टूरिस्ट आये साहब, कश्मीर गुलज़ार हो गया
अब इधर कोई पंगा नहीं एकदम शान्ति है
घोड़े वाले बहुत लूटते हैं, इधर के लोग को बिजनेस नहीं आता
पर क्या करें साहब! बिजनेस तो बस छह महीने का है
और घोड़े को पूरे बारह महीने चारा लगता है
आप पैदल जाइयेगा रास्ता मैं बता दूंगा सीधे गंडोले पर
ऊपर है अभी थोड़ी सी बरफ़...
यह आखिरी बची बर्फ है गुलमर्ग के पहाड़ों पर
अनगिनत पैरों के निशान, धूल और गर्द से सनी मटमैली बर्फ़
मैं डरता हूँ इसमें पाँव धरते और आहिस्ता से महसूसता हूँ उसे
जहाँ जगहें हैं खाली वहाँ अपनी कल्पना से भरता हूँ बर्फ़
जहाँ छावनी है वहाँ जलती आग पर रख देता हूँ एक समोवार
गूजरों की झोपड़ी में थोड़ा धान रख आता हूँ और लौटता हूँ नुनचा की केतली लिए
मैं लौटूंगा तो मेरी आँखों में देखना
तुम्हें गुलमर्ग के पहाड़ दिखाई देंगे
जनवरी की बर्फ़ की आगोश में अलसाए
(दस)
यहाँ कोई नहीं आता साहब
बाबा से सुने थे किस्से इनके
किसी भी गाँव में जाओ जो काम है सब इनका किया
फारुख साहब तो बस दिल्ली में रहे या लन्दन में
उमर तो बच्चा है अभी दिल्ली से पूछ के करता है जो भी करता है
आप देखना गांदेरबल में भी क्या हाल है सड़क का..
डल के प्रशांत जल के किनारे
संगीन के साये में देखता हूँ शेख साहब की मज़ार
चिनार के पेड़ों की छाँव में मुस्कराती उनकी तस्वीर
साथ में एक और कब्र है
कोई नहीं बताता पर जानता हूँ
पत्नियों की कब्र भी होती है पतियों से छोटी
(ग्यारह)
तीन साल हो गए साहब
इन्हें अब भी इंतज़ार है अपने लड़के का
उस दिन आर्मी आई थी गाँव में
सोलह लाशें मिलीं पर उनमें इनका लड़का नहीं था
जिनकी लाशें नहीं मिलतीं उनका कोई पता नहीं मिलता कहीं
इस साल बहुत टूरिस्ट आये साहब
गुलज़ार हो गया कश्मीर फिर से
बस वे लड़के भी चले आते तो...
(बारह)
गुलमर्ग जायेंगे तो गुजरेंगे पुराने श्रीनगर से
वहीं एक गली में घर था हमारा
सेब का कोई बागान नहीं, न कारखाने लकडियों के
एक दुकान थी किराने की और
दालान में कुछ पेड़ थे अखरोट के
तिरछी छतों के सहारे लटके कुछ फूलों के डलिए
एक देवदारी था मेरे कमरे के ठीक सामने
सर्दियों में बर्फ़ से ढक जाता तो किसी देवता सरीखा लगता
हजरतबल की अजान से नींद खुलती थी
अब शायद कोई और रहता है वहाँ ...
वहाँ जाइए तो वाजवान ज़रूर चखियेगा...
गोश्ताबा तो कहीं नहीं मिलता मुग़ल दरबार जैसा
डलगेट रोड से दिखता है शंकराचार्य का मंदिर...
थोड़ा दूर है चरारे शरीफ़ ..
पर न अब अखरोट की लकड़ियों की वह इमारत रही न खानकाह
कितना कुछ बिखर गया एहसास भी नहीं होगा आपको
हम ही नहीं हुए उस हरूद में अपनी शाखों से अलग...
मैं तुम्हें याद करता हूँ प्रांजना भट्ट हजरतबल के ठीक सामने खड़ा होकर
रूमी दरवाजे पर खड़ा हो देखता हूँ तुम्हारा विश्वविद्यालय
चिनार का एक ज़र्द पत्ता रख लिया है तुम्हारे लिए निशानी की तरह ...
(तेरह)
जुगनुओं की तरह चमचमाते हैं डल के आसमान पर शिक़ारे
रंगीन फव्वारों से जैसे निकलते है सितारे इतराते हुए
सो रहे है फूल लिली के दिन भर की हवाखोरी के बाद
अलसा रहा है धीरे-धीरे तैरता बाज़ार
और डल गेट रोड पर इतनी रौनक कि जन्नत में जश्न हो जैसे
अठखेलियाँ रौशनी की, खुशबुओं की चिमगोइयाँ
खिलखिलाता हुस्न, जवानियाँ, रंगीनियाँ...
बनी रहे यह रौनक जब तक डल में जीवन है
बनी रहे यह रौनक जब तक देवदार पर है हरीतिमा
हर चूल्हे में आग रहे
और आग लगे बंदूकों को.