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कस्बे वाली लड़की / दीपिका केशरी
Kavita Kosh से
प्रेम कविताएँ पढते हुए कस्बाई लडकियां
बागी हो जाया करती हैं,
वो खिड़की से भी यू कूदती हैं
कि असली दुनिया में साबूत पहुंच जाती हैं
और जब वही दुनिया बेरुखी से उसका हाथ दबोचती है,
तब वो भागती हुई
फिर से लौट आती है अपने बिस्तर पे
जहां रखी थी उसने एक आधी पढ़ी कविता
दो जोड़ी नजरें
एक चश्मा
चश्में के डब्बे के ऊपर चिपकी एक कत्थई बिंदी
एक गहरे रंग का दुपट्टा
अपने कानों की बालियां
और न जाने क्या क्या !
लौट कर वो अपने डायरी में लिखती है
प्रेम कविताएँ झूठी होती हैं
साथ ही उस लड़की का किरदार भी झूठा है
जो अक्खड़ हो
एक बैग में खुद को समेट कर
रोशनदान से दुनिया घूम आती है !