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कहते थे, ”मेरी दृगपुतरी! मुझको न स्वयं से दूर करो / प्रेम नारायण 'पंकिल'

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कहते थे, ”मेरी दृगपुतरी! मुझको न स्वयं से दूर करो।
उर-भेंट कृशोदरि कलुष-शैल मेरा स्वप्रीति से चूर करो।
मेरा अर्चना-प्रदीप, अकिंचन का महानतम धन हो तुम।
मेरे प्राणों की प्राण, हंसपादिके! मृणालिनी तन हो तुम।
सखि! चिता-अनल में भी मैं तेरी प्रणय गीत गंगा में बह।
चिरनिद्रित कर लूँगा लोचन ‘वल्लभे! बाहु में भर लो’ कह”।
तुम में मर-मिटना चाह रही बावरिया बरसाने वाली ।
क्या प्राण निकलने पर आओगे जीवन-वन के वनमाली ॥92॥