भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

कहते थे "एक ओर संसृति-संस्तुत प्रतिमा-पुराण-ईश्वर / प्रेम नारायण 'पंकिल'

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

 
कहते थे ”एक ओर संसृति-संस्तुत प्रतिमा-पुराण-ईश्वर।
है एक ओर मधु-सुधा-स्नात प्रेयसि-अरूणाभ कपोल अधर।
मैं तृप्ति-तृषित दिग्भ्रान्त पथिक वांछित ”पंकिल“ पथ-सम्बल चुन।
होता कृतार्थ मानसी-कुंज में सुमुखि-पयोधर-अम्बर बुन।“
कामिनी-केलि-कान्तार-क्वणित तुम कंकण-किंकिण-नूपुर सुन।
हे शाश्वत सामवेद पाठी! अनुराग-राग-गाते गुनगुन।
हा! रही आज निज में जलभुन बावरिया बरसाने वाली ।
क्या प्राण निकलने पर आओगे जीवन-वन के वनमाली ॥70॥