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कहा नसीब ज़मुर्रद को सुर्ख़-रूई ये / शहबाज़
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कहाँ नसीब ज़मुर्रद को सुर्ख़-रूई ये
समझ में लाल की अब तक हिना नहीं आई
ख़जिल है आँखों से नर्गिस गुलाब गालों से
वो कौन फूल है जिस को हया नहीं आई
उमड़ रहा है पड़ा दिल में शौक़ ज़ुल्फ़ों का
ये झूम झूम के काली घटा नहीं आई
हो जिस से आगे वो बुत हम से हम-सुख़न वाइज़
कहीं हदीस में ऐसी दुआ नहीं आई
ज़बाँ पे उस की है हर दम मेरी बला आए
बला भी आए तो समझो बला नहीं आई
शब-ए-फ़िराक़ का छाया हुआ है रोब ऐसा
बुला बुला के थके हम क़ज़ा नहीं आई
नज़र है यार की 'शहबाज़' कीमिया-तासीर
पर अपने हिस्से में ये कीमिया नहीं आई