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कहाँ आ गए हैं / कुमारेन्द्र सिंह सेंगर
Kavita Kosh से
पड़े थे खंडहर में
पत्थर की मानिंद,
उठाकर हमने सजाया है।
हाथ छलनी किए अपने मगर
देवता उनको बनाया है।
पत्थर के ये तराशे बुत,
हम ही को आँखें दिखाने लगे हैं,
कहाँ से चले थे कहाँ आ गए हैं?
बदन पर लिपटी है कालिख,
सफेदी तो बस दिखावा है।
भूखे को रोटी,
हर हाथ को काम,
इनका ये प्रिय नारा है।
भरने को पेट अपना
ये मुंह से निवाले छिना रहे हैं,
कहाँ से चले थे कहाँ आ गए हैं?
सियासत का बाज़ार रहे गर्म,
कोशिश में लगे रहते हैं।
राम-रहीम के नाम पर
उजाड़े हैं जो,
उन घरों को गिनते रहते हैं।
नौनिहालों की लाशों पर
गुजर कर,
ये अपनी कुर्सी बचा रहे हैं,
कहाँ से चले थे कहाँ आ गए हैं?