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कहाँ गेलहौ? / कस्तूरी झा 'कोकिल'
Kavita Kosh से
हरदम तोंय कहै छेलहौ, हमरा नैं छोड़ि हेॅ।
हमरा न भूलैइ है।
सट्टी केॅ बैठेॅ नें कविता सुनै हेॅ।
तोहीं तेॅ छोड़ी केॅ
गेलहौ पराय।
बोललेह नैं बाजलेह कुछ
कह लेॅ ह समझाय।
भीतरे भीतर हुमड़ै छीहौं
घटा नॉकी घुमड़ै छीहैं।
होय जाय छै भोर।
ठप-ठप-ठप चूयै छै,
आँखीं सें लोर।
खोजी-खोजी थकै छीहौं,
कहूँ नें पाबै छीहौं
सगूनों उचारै छीहौं,
कौवा केॅ पुकारै छीहौं
कुछोॅ नैं पाबै छीहौं
भाँड़े दौड़े छै/हमरँ हे!! मोॅन।
तेहें कुछ नैं बोलै छौ/धरने छौ मौन।
(25 फरवरी, 2015), तीन बजे।