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कहाँ पै आ गए हैं हम / ओमप्रकाश चतुर्वेदी 'पराग'

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न ज़िन्दगी विमुक्त है, न मृत्यु कसाव है

कहाँ पै आ गए हैं हम, यह कौन-सा पड़ाव है


न ठौर है न ठाँव है, न शहर है न गाँव है

न धूप है न छाँव है

यह दृष्टि का दुराव है, कि सृष्टि का स्वभाव है


न शत्रु है न मीत है, न हार है न जीत है

न गद्य है न गीत है

न प्रीति की प्रतीति है, न द्वेष का दबाव है


न हास है न रोष है, न दिव्यता न दोष है

न रिक्तता न कोष है

बुझी हुई समृद्धि है, खिला हुआ अभाव है


न भोर है न रैन है, न दर्द है न चैन है

न मौन है न बैन है

यह प्यास का प्रपंच है, कि तृप्ति का तनाव है


न दूर है न संग है, न पूर्ण है न भंग है

अनंग है न अंग है

अरूप रूप चित्र का, विचित्र रख रखाव है


न धार है न कूल है, न शूल है न फूल है

न तथ्य है न भूल है

असत्य है न सत्य है, विशिष्ट द्वैतभाव है

कहाँ पै आ गए हैं हम, यह कौन-सा पड़ाव है।