भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
कहाँ फूलों के दरमियान रहे / श्याम कश्यप बेचैन
Kavita Kosh से
कहाँ फूलों के दरमियान रहे
जो उसूलों के दरमियान रहे
हम तो केलों के पात जैसे थे
पर बबूलों के दरमियान रहे
काफ़िले तक पहुँच नहीं पाए
उड़ती धूलों के दरमियान रहे
फिर भी अपनी जड़ें नहीं खोईं
हम बगूलों के दरमियान रहे
साथ रहने की भूल की थी कभी
अपनी भूलों के दरमियान रहे