कहाँ हैं तुम्हारी वे फ़ाइलें / विजेन्द्र अनिल
मैं जानता था : तुम फिर यही कहोगे
यही कहोगे कि राजस्थान और बिहार में सूखा पड़ा है
ब्रह्मपुत्र में बाढ़ आई है, उड़ीसा तूफ़ान की चपेट में है।
तुम्हारे सामने करोड़ों की समस्याएँ हैं
मुट्ठी भर आन्दोलनकारियों की तुम्हें परवाह नहीं,
कि आन्दोलन से किसी भी समस्या का समाधान नहीं हो सकता।
तुम वर्षों से, लगातार यही तो कह रहे हो
और सूखा हर साल पड़ता है, बाढ़ हर साल आती है
तूफ़ान हर साल आता है और हर साल मरते हैं लाखों लोग
तुम्हारी फ़ाइलों में सिर्फ़ आँकडे हैं
आँकड़े हैं उन बच्चों के जो अभी-अभी माँ के गर्भ से बाहर निकले हैं
उन मर्दों के जिन्हें तुमने आॅपरेशन और इंजेक्शन के द्वारा नपुंसक बना दिया है
और उन खोखली योजनाओं के,
जिनका एक-एक पैसा घूम-फिर कर तुम्हारी ही तिजोरियों में क़ैद हो जाता है।
कहाँ हैं तुम्हारी वे फ़ाइलें
जिनमें हड़ताली खान मजदूरों पर चलाई गई
गोलियों के आँकड़े हैं?
कहाँ हैं वे फ़ाइलें जिनमें जवानों के सीनों में
घुसेड़ी गई संगीनों के दाग हैं?
कहाँ हैं वे फ़ाइलें जिनमें आंदोलनकारी छात्रों पर फेंके गए
टीयर गैस के गोलों और बन्दूक के छर्रों के निशान हैं?
कहाँ हैं? कहाँ हैं वे फ़ाइलें
जिनमें ज़िन्दा जलाए गए हरिजनों और आदिवासियों की
लावारिस लाशों की गन्ध है?
तुम चालाक हो,
जानते हो, ये फ़ाइलें आग बन सकती है।
इसलिए तुमने इन्हें बर्फ़ की सिल्लियों में छिपा रखा है।
मगर, लगातार पिघल रही बर्फ़ की इन सिल्लियों का
क्या करोगे?
क्या करोगे इन सिल्लियों का जो लगातार
हड़तालों और आन्दोलनों के ताप से पिघल रही हैं?
तुम काग़ज़ की दीवार खड़ी करके गंगा के बहाव को
रोकना चाहते हो
तुम ‘ब्लास्ट फर्नेस’ में पिघलते लोहे की गर्मी को
चम्मच भर दूध और चुल्लू भर पानी से कम करना चाहते हो
वाकई, तुम बहुत चालाक हो !
हर पाँच साल पर, तुम्हारे देश की सीमा पर होती है लड़ाई
कहते हैं खदेरू, गोरख, घीसू, भिखारी, जोखू और करामात के जवान बेटे
जो रोटी की तलाश में
अपनी गर्भवती बीवी को घर पर छोड़कर
या बीमार बाप की खाट पर दवा की ख़ाली शीशी पटककर
या विधवा माँ के मुँह से गिरते बलगम में ख़ून के
थक्कों को देखकर
या रोटी के लिए चीख़ते बच्चों को पत्नी के आँचल में बाँधकर
भाग गए
तुम्हारे ‘रिक्रूटिंग आॅफ़िस’ की ओर
और तुमने उनके हाथों में थमाकर लोहे की पतली-पतली नलियाँ
उनके माथे पर पटक दिया था देश का बेडोल नक़्शा
और ऐलान कर दिया था कि यही ‘तुम्हारी माँ है’—
...और जिस वक़्त
काग़ज़ी माँ की नकली सीमाओं की हिफ़ाज़त के लिए
वे अपने ही भाइयों के सीनों में घुसेड़ रहे थे संगीनें
अथवा दाग रहे थे तोपें और गोलियाँ
उस वक़्त, तुम अपनी बीवी के जूड़े में खोंस रहे थे
रजनीगन्धा के फूल
अथवा ‘नाइट शो’ से लौटने के बाद अपने एयरकण्डीशण्ड
कमरे में बैठकर तोड़ रहे थे ‘रम’ और ह्विस्की के कार्क।
लेकिन यह सब कहना फ़िजूल है
मैं जानता हूं, तुम फिर यही कहोगे
यही कहोगे कि देश एक नाज़ुक दौर से गुज़र रहा है
सीमा पर शत्रुओं ने गोली चलाई है
और फिर...
तुम्हारी टेबल पर नई-नई फ़ाइलें बिख़र जाएँगी
तुम्हारे प्रेस, तुम्हारे रेडियो, तुम्हारे अख़बार,
तुम्हारे टेलीविजन झूठ के बड़े-बड़े गोले उगलने लगेंगे।