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कहानी रोज़ की / वर्तिका नन्दा

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रसोई में
रोज़ तीनों पहर पकते रहें पकवान
नियत समय पर टिक जाएँ मेज़ पर
इसकी मशक़्क़त में
चढ़ानी पड़ती है
अपनी डिग्रियों की बलि

जूते पॉलिश हों
आँगन धुल जाए
बादशाह और नवाबज़ादों के घर लौटने से पहले
सब कुछ सरक जाए अपनी जगह पर
मुस्कुराते, इतराते, कुछ ऐसे कि जैसे
न हुआ हो कुछ भी दिन भर के मेले में
जैसे बटन के दबाते
सब सिमट आएँ हों
आहिस्ता से अपनी-अपनी जगह
इसके लिए देनी पड़ती है
अपनी ख़ुशियों की आहुति

सर्दी आने से पहले
दुरुस्त हो जाएँ हीटर
बाहर उछल आएँ रजाई-कंबल
बनने लगें गोभी-शलगम के अचार
गाजर के हलवे
इसके लिए माँग की ..सिंदूर की रेखा
खींच लेनी पड़ती है थोड़ी और

बारिश में टपकती छत से
गीले न हों फर्श
रख दी जाए बालटी, टपकन से पहले ही
शाम ढलने से पहले आलू के पकौड़ों की ख़ुशबू
पड़ोसी अफ़सरों के घर पहँच जाए
इसके लिए ठप्प करना पड़ता है अपने सपनों का ब्लॉग

इस पर भी सर्द मौसमों के लिहाफ़ों
गर्मी में ए०सी० के हिचकोलों के बीच
बिस्तरों पर चढ़े
क्षितिज के पार की
औरतों के अधिकार की बात करते
न तो शहंशाह मुस्कुराते हैं, न नवाबज़ादे
इसके लिए
आँखों के नीचे
रखना पड़ता है
एक अदद तकिया भी

एक मामूली औरत

आँख़ों के छोर से
पता भी नहीं चलता
कब आँसू टपक जाते हैं
और तुम कहते हो
मैं सपने देखूँ

तुम देख आए तारे ज़मी पे
तो तुम्हें लगा कि सपने
यों ही संगीत की थिरकनों के साथ उग आते हैं
और यहाँ सब कुछ मिलता है एक के साथ एक फ़्री

नहीं, ऐसे नहीं उगते सपने

मैं औरत हूँ
अकेली हूँ
पत्रकार हूँ

मैं दुनिया भर के सामने फौलादी हो सकती हूँ
पर अपने कमरे के शीशे के सामने
मेरा जो सच है
वह सिर्फ़ मुझे ही दिखता है
और उस सच में, सच कहूँ
सपने कहीं नहीं होते

तुमसे बरसों से मैनें यही माँगा था
मुझे औरत बनाना, आँसू नहीं
तब मैं कहां जानती थी
दोनों एक ही हैं

बस, अब मुझे मत कहो
कि मैं देखूँ सपने
मैं अकेली ही ठीक हूँ
अधूरी, हवा सी भटकती

पर तुम यह सब नहीं समझोगे
समझ भी नहीं सकते
क्योंकि तुम औरत नहीं हो
तुमने औरत के गर्म आँसू की छलक
अपनी हथेली पर रखी ही कहाँ ?