कहानी लक्षबाहू की / निर्मल शर्मा
हठी लक्षबाहू ने
हठ नहीं छोड़ा और
इतिहास से लेते हुए
अपनी लाठी
अपना कंबल
कूद पड़ा समर में !
लक्षबाहू भयभीत नहीं हो
उसका रास्ता भी कट जाए और
अंतिम समर में भी
विजयी रहे वही / इसलिए
इतिहास ने उससे
दिलचस्प बातें छेड़ीं;
लक्षबाहू
तुमने तो बहुत साधारण रूप में
जीवन आरम्भ किया था,
धरती सुलाती थी तुम्हें
अपनी विराट देह में,
नदियाँ, झरने, मेघ
अपने स्नेहिल जल से-
सींचते रहे यश,
कलेवे के लिए
प्रकृति की गोद में
कमी कहाँ थी तुम्हारे लिए !
मैं देखता रहा हूँ
तुम्हारी भुजाएँ बढ़ती ही जा रही हैं
ज्यों हर वर्ष लहरती हैं बालियाँ
ज्यों हर वर्ष कूकती है कोयल
ज्यों हर वर्ष लौटता है वसंत
ज्यों हर वर्ष हारता है पतझर !
तुम फैलते ही गए हो ।
साथी बनाया पशुओं को अपना
फ़सलों को सींचा अपने पसीने से
इस तरह धरती का ऋण लौटाने लगे तुम,
ख़ून की क़ीमत पर यह लौटाना
कितना चिढ़ाता रहा होगा धरती को !
तुम्हारी भुजाएँ और
भुजाओं में उठती / उभरती मछलियाँ
तब भी कहाँ हारीं जब कुछ
शक्तिमंतों ने-
दाँतों के बीच घिरी जीभ की तरह
तुम्हें रखना चाहा अपनी लाठी तले ?
वे फैलीं और ख़ुशबू की तरह फैलती ही गईं
भुजाओं में उठती / उभरती
उन मछलियों ने
शक्ति और लूट के उस काले दरिया के विरुद्ध
जो कहर बरपा किया,
मेरे सीने में
आज भी सुरक्षित हैं वे दास्तानें ।
पैंतरे उन्होंने भी बदले / जब
पूँजी का जाल लीलने लगा
पगड़ी के पैंच
ख़ून का भाव पानी हो गया
हड्डियों की खंजरी, तब भी
छेड़ती रही मुक्ति का गीत !
एक बार फिर साबित हो गया
पैंतरा जो रहे / खम
तुम्हारा भी कम नहीं होता,
वे डाल-डाल तो तुम पात-पात ।
लक्षबाहू
इस यात्रा का
कहीं तो अंत होगा ?
जानबूझकर यदि
उत्तर नहीं किया तुमने / तो
चूर-चूर हो जाएँगी तुम्हारी कोशिशें
काल निकल जाएगा सारी शक्ति
लेकिन डरो नहीं !
मैं बैताल नहीं / जो
तुम्हारे उत्तर करते ही
पुनः उलटा जा लटकूँ डाल पर
तुम्हें छकाता हुआ ।
पहले तो मुस्कराया लक्षबाहू
फिर बोला-
जब तक मनुष्य
पा नहीं लेता अपना सूर्य,
अपना समुद्र,
और अपना संगीत,
तब तक जारी रहेगा
मेरी भुजाओं का निरंतर फैलना ।
फैलाना इतना कि
कल्पवृक्ष बन सकें
दुनिया की सभी
रचनात्मक भुजाओं को एक करते हुए ।