भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
कहीं इंजोर बा, कहीं अँधार हो जाला / सतीश्वर सहाय वर्मा ‘सतीश’
Kavita Kosh से
कहीं इंजोर बा, कहीं अँधार हो जाला
कहीं उठल धुँआ, कहीं अंगार हो जाला
झनक के टूटि गइल, तार सजल बीना के
उदास तार कहीं तन सितार हो जाला
कहीं ई आँखि के आगी जरा गइल हियरा
कहीं नयन मिल नयन से पियार हो जाला
भरम में डालि के साथी कहीं रोआवेला
कहीं ई आँखि के मोती सिंगार हो जाला
बड़ा सम्हार के हिरदया में बात तोपल बा
अजब ‘सतीश’ के मन बेसम्हार हो जाला