भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
कहीं नहीं बने बस्ते इनके वास्ते / महेश सन्तोषी
Kavita Kosh से
कहीं नहीं बने बस्ते इनके वास्ते
क्यों देखते रहते हैं हम चुपचाप
बहुत से बचपन बर्तन मांजते?
क्यों नहीं पूछते हम
व्यवस्था से, समाज से?
क्या कहीं नहीं छपीं
इनके लिए किताबें?
कहीं नहीं बने बस्ते इनके वास्ते?
क्या एक भी ऐसी सड़क नहीं है
जो इन्हें किसी स्कूल तक ले जाती?
इनके लिए रास्ते क्यों नहीं रोके जाते?
इनकी मां क्यों नहीं चीखती, चिल्लाती?
व्यवस्था, इन्हें कैसे नहीं देख पाती?
सम्वेदना की आँख, क्यों नहीं डबडबाती?
मशाले बनकर क्यों नहीं जागती चेतना
एक क्रान्ति फिर क्यों नहीं आती?
एक क्रान्ति फिर क्यों नहीं आती?