भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
कहीं भी लेश अपनापन नहीं है / विनोद तिवारी
Kavita Kosh से
कहीं भी लेश अपनापन नहीं है
कहीं भी कोई भावुक मन नहीं है
बड़े झुरमुट बबूलों के उगे हैं
वनों में हाय अब चन्दन नहीं है
ये रंगों का शहर है झिलमिलाता
चमकती चीज़ पर कुंदन नहीं है
यहाँ के लोग हैं ख़ुद से अपरिचित
नगर में एक भी दरपन नहीं है
सदाशयता की बातें कर रहा था
वही व्यक्ति जो ख़ुद सज्जन नहीं है