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कहीं राह चलते चलते / अज्ञेय

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कहीं रहा चलते-चलते
चुक जाएगा
दिन।
सहसा झुक आएगी साँझ घनेरी।

घुल जाएँगे रूप धुँधलके में
मृदु : पीड़ाएँ-क्षण-भर-रुक जाएँगी, करती
अपने होने पर सन्देह।
एक स्तब्धता से मैं जाऊँगा घिर।

और साँझ फिर
मेरी पहले की पहचानी होगी :
पल-भर उस के भुज-बन्ध में सिहर
चूम लूँगा मैं उसे उनाबी ओठों पर भरपूर।

कहीं राह चलते-चलते
-है मुझे ज्ञात-
दिन चुक जाएगा।

नयी दिल्ली, 7 मई, 1968