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क़तअ / मख़दूम मोहिउद्दीन
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ये रक़्स, रक़्से शरर ही सही मगर ऐ दोस्त
दिलों के साज़ पे रक़्से शरर ग़नीमत है
क़रीब आओ ज़रा और भी क़रीब आओ
के रुह का सफ़र-ए-मुख़्तसर ग़नीमत है ।