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क़दम मिलकर उठें तो रास्ता अक्सर निकलता है / गिरिराज शरण अग्रवाल

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क़दम मिलकर उठें तो रास्ता अक्सर निकलता है
करें कोशिश तो बिखरी भीड़ से लश्कर निकलता है

सभी बाधाएँ हट जाती हैं, जब साहस हो बढ़ने का
कि अंकुर तोड़कर सारे कवच बाहर निकलता है

नहीं देखें तो सागर आँख के आगे से हो ओझल
अगर देखें तो इक क़तरे से भी सागर निकलता है

वो बेगाना पड़ोसी जिसने हमसे कुछ नहीं चाहा
अगर सोचें तो उसका क़र्ज़ भी हम पर निकलता है

ज़माने-भर के सब चेहरे हमें अपने-से लगते हैं
लिखें तो लेखनी से प्रेम का अक्षर निकलता है