भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

क़बीले के नहीं सरदार अब तुम / राज़िक़ अंसारी

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

क़बीले के नहीं सरदार अब तुम
करो तस्लीम अपनी हार अब तुम

तुम्हें पब्लिक में जाकर बैठना है
कहानी में नहीं किरदार अब तुम

ख़रीदारों में दिलचस्पी नहीं है
खड़े हो क्यों सरे बाज़ार अब तुम

सहारे के लिए बैठे हो कब से
उठाओ ख़ुद ही अपना बार अब तुम

तुम्हारी उम्र तुम से कह रही है
पढ़ो घर बैठ कर अख़बार अब तुम