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क़लमबन्द बयान / सुभाष राय

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मुझे बिल्कुल पसन्द नहीं है
फूलों का मनमाने रँगों में खिलना
मैं चाहता हूँ कि सारे फूलों में एक रँग हो
एक आभा, एक मूल और एक बीज

पहाड़ को, नदी को, जँगल को, धरती को
कह दिया गया है कि वे मेरी ख़ुशी का ख़याल रखें

मैंने उम्मीदें जगाईं, सपने दिखाए
तुमसे ज़िन्दगी के कठिन सवाल पूछे
तुम्हारी भुजाओं पर सवार होकर छू लिया आसमान

तुम्हें मेरे ऊपर हो न हो, मुझे तुम पर भरोसा है
अब सोने दो मुझे, सपनो मे खोने दो
जवाब मत माँगो, सवाल मत पूछो

मत कहो कि मैं चुप हूँ
मैं चुप रहा ही नहीं कभी
चुप रह ही नहीं सकता
बोलना मेरा शग़ल है, शौक है
मैं बोलता हूँ तो, बस, बोलता हूँ

मैं चुप रहता तो हस्तिनापुर और पाटलिपुत्र
मेरा मज़ाक क्यों उड़ाते

मैं बोलता हूँ, इसीलिए चाहता हूँ
आप बोलें, वे बोलें, सब के सब बोलें
मेरे समर्थकों को सख़्त हिदायत दी गई है
वे मेरी तक़रीर का अनुवाद न करें
मेरी सुने लेकिन मेरी न सुनें

अब सब ठीक-ठाक है
मैं कहता हूँ कमल, वे सुनते हैं कीचड़
मैं कहता हूँ सवा सौ करोड़, वे सुनते हैं हिन्दू
मैं कहता हूँ काम-काम, वे सुनते हैं राम-राम
मैं कहता हूँ संविधान, वे सुनते हैं गीता गान

आप को लगता है, वे मुझसे सहमत नहीं हैं
आप मुझसे सहमत नहीं हैं, मैं आप से सहमत नहीं हूँ

इतनी शिकायतें ठीक नहीं
आप की हर दस्तक सुनी गई
ज़रूरी नहीं कि हर बार दरवाज़ा खोल ही दिया जाए

आप ने जब पहली दस्तक दी, मैं प्रार्थना में था
प्रार्थना के वक़्त न सुनता हूँ, न देखता हूँ
आप ने फिर आवाज़ लगाई, मेरे हाथ में झाड़ू था
मैं सोच रहा था, कहाँ से शुरू करूँ
आप ने साँकल दरवाज़े पर दे मारी
नारे लगाए, कविताओं के गोले फेंके
जलते हुए पोस्टरों से वार किया

अभी अच्छा चल रहा है मेरा योग
सुबह, दोपहर, शाम
अनुलोम-विलोम, भस्रिका प्राणायाम
ओम् हुम् सीते राधे राम