क़स्बे की दुकान में मनमोहन जी / लीलाधर मंडलोई
यह अकस्मात ही हुआ कि अपनी औकात से बाहर
मैं इस सदी के उत्तर प्रायोजित बाजार के
कुतूहल में अकस्मात जा पहुंचा
चीजों में अफरा-तफरी का रोमांच था
वस्तुएं शोर के रेलमपेल में न्यस्त थीं और पुरूष
स्त्री की जगह स्त्री की अनुकृति से रोमांस में मुब्तला थे
रोमांस किसी और स्मृति का प्रतिबिम्ब था चमकदार
इच्छापूर्ति की मॉडगेजिंग में एकाएक
नए बनियों-बक्कालों का हुजूम था
कुत्तों की जीभ एक विज्ञापन में मानव मुख से बाहर
बाजार में लपलपा रही थी और मल्टी नेशनल्स मुदित थे
क्रेडिट कार्डस हवा में उछल रहे थे और मध्यवर्ग के चेहरे पर
बनावटी हंसी के पार्श्व में कोई लगातार रो रहा था
घटनाओं के पूर्वानुमान का उछाल जोरों पर था और
भविष्यफल के पन्नों पर
आर्थिक भविष्यफल फन उठाए नर्तन कर रहा था
शेयर बाजार में लोग खुलेआम लुट रहे थे
और चीजों को आघातों से बचाने की होड़ थी
होड़ में पूरी शक्ति किसी डालर के पीछे लगी थी
मैं एक तमाशबीन इस दृश्य को देख
खुलेआम हंस सकता था, हंसा
मेरी उपस्थिति वहां नाजायज लगी और
मुखबिर मान कुछ खूंखर आंखें आतुर दिखीं
धर दबोचने को
मैंने इस कुतूहल से बाहर छलांग लगाई
और मजे से फुटपाथ पर मूंगफली तोड़कर खाने लगा
मैंने देखा औकात से बाहर के इस बाजार में
मेरा होना एक ऐसी वस्तु में तब्दील हो गया है
जिसे कस्बे की किसी दुकान में फेंका जा सके
मैंने कुतूहल के बचे-खुचे आतंक से मुक्त होने के लिए
आंखें बंद कीं और देखा
कस्बे की दुकान में मनमोहन जी हाथ जोड़
मेरे आने की प्रतीक्षा कर रहे हैं
मेरा कस्बा इस तरह पारंपरिक बाजार में उत्तर आधुनिक काउंटर.