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क़िताबें / महेन्द्र गगन
Kavita Kosh से
कमरे में रखीं
क़िताबें
कुछ मित्रों की हैं
कुछ हैं पितरों की
आश्वस्त होता हूँ
मेरे पास
मित्र भी हैं
और हैं पितृ भी
जब चाहो
किसी को भी उठा लो
साथ रहो, सीखो, बातें करो
क़िताबों के मौन शब्द
उतना ही बोलते हैं
जितनी गूँज है
उनकी हमारे भीतर
मित्र भी साथ हैं इसी तरह
इसी तरह गूँजते हैं पितृ