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क़िरतास पे नक़्शे हमें क्या क्या नज़र आए / 'वामिक़' जौनपुरी

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क़िरतास पे नक़्शे हमें क्या क्या नज़र आए
सब ख़ुश्क नज़र आए जो दरिया नज़र आए

किस को शब-ए-हिज्राँ की गिरानी का हो एहसास
जब दिन चढ़े बाजार में तारा नज़र आए

पत्थर सा वो लगता है टटोलो न जो दिल को
और हाथ में ले लो तो सरापा नज़र आए

सहरा की सदा जिस को समझते रहे कल तक
वो हर्फ़-ए-जुनूँ अब चमन-आरा नज़र आए

मंज़िल का तअय्युन ही ख़ला में नहीं मुमकिन
हम को तो कोई दश्त न दरिया नज़र आए

ऐ काश मिरे गोश ओ नज़र भी रहें साबित
जब हुस्न सुना जाए या नग़मा नज़र आए

इक हल्क़ा-ए-अहबाब है तन्हाई भी उस की
इक हम हैं कि हर बज़्म में तन्हा नज़र आए

हम ने जो तराशे थे सनम अहद-ए-जुनूँ में
उन में से हर इक आज शिवाला नज़र आए

इस दौर की तख़्लीक़ भी क्या शीशा-गरी है
हर आईन में आदमी उल्टा नज़र आए