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क़ूव्वत / लीलाधर मंडलोई
Kavita Kosh से
रास्ता कोई नहीं तो बचा अकेला सही
चुप था कल तक
अब प्रतिप्रश्न की मुद्रा धारे
मांगता माफियां कल को कि बड़ी भूल हुई
खेद में डूबे हैं कुछ और जिनको राह नहीं
किसका बाजू ले खड़े हों बस अभी याद आया
दुहाइयां लेकर घूमते हैं शर्म से ऊपर
रोटियां सेंकते हैं चिताओं पर और रंज नहीं
गठजोड़ का आधार है एक फिजूल बहस
साथ हो जाने का गणित है आधारहीन
बंद हुए खाते उन सबके जो आ मिले आपस
भीतरी कमरों में जो पहुंचे तो सब दफ्तर दाखिल
कितनी गठजोड़ की ताकत
खरीद की कूव्वत
कहने को है संसद और श्रेष्ठ न्यायालय
जिसको मालूम है कीमत खरीद लेता है