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काँटों से मुँह मोड़ रहे हो / हरि फ़ैज़ाबादी
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काँटों से मुँह मोड़ रहे हो
क्यों गुल का दिल तोड़ रहे हो
सच्चाई है तुम्हें पता जब
तब क्यों उसे झिंझोड़ रहे हो
कहते हो तक़दीर बुरी है
बैठे बंजर गोड़ रहे हो
ख़ुश्बू होती तो ख़ुद आती
नाहक़ फूल मरोड़ रहे हो
अश्क नहीं गिरते हैं यूँ ही
बेजा पलक निचोड़ रहे हो
किस जानिब का दिल रखने को
बाक़ी सिम्तें छोड़ रहे हो
‘हरि’ से नज़र बचाकर आख़िर
किससे नाता जोड़ रहे हो