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काँपे अंतर्तम / अवनीश त्रिपाठी
Kavita Kosh से
टेर लगाती
मौसम के
पीछे पीछे हरदम
पुरवाई की
आँखें भी अब
हो आईं पुरनम।
प्यास अनकही
दिन भर ठहरी
अब तो साँझ हुई
कोख हरी
होने की इच्छा
लेकिन बाँझ हुई।
अंधियारे का
रिश्ता लेकर
द्वार खड़ी रातें
ड्योढ़ी पर
जलते दीपक की
आस हुई अब कम।
उपजे कई
नए संवेदन
हरियर प्रत्याशा में
ठूंठ हुए
सन्तापों वाले
पेड़ कटे आशा में
भूख किताबी
बाँच रही अब
चूल्हे का संवाद
देह बुढ़ापे की
लाठी पर
काँपे अंतर्तम।